में देख लूँ कैसी वो मदीने की गली है।
वलफज्र है चेहरा तेरा वल्लेल वोहैं गेस्।
क्या प्यारा तबस्सुम है कली जैसे खिली है।
जन्नत की फिजाओं में वह क्या रहके करेगा।
सहराऐ मदीना को हवा जिसको मिली है।
लो मुजरिमो सामाने शफाअत हुआ अपना
अब बादे करम देखो मदीने से चली है।
सब झोलियाँ अब कासिमे निअमत ही भरेंगे
हाँ काने सखावत तो सखी दर की खुली है।
कैसे तु भला खुल्द में जाऐगा वहाबी
मिप्ताहे दरे खुल्द जब आका को मिली है।
परवानों का झुरमुट वहाँ, हामिद तु यहाँ पर
चल देख शमा नूरी मदीने में जली है।
शायर: हामिद रज़ा शेरपुरी( दारुल उलूम गौसिया न्यूरिया पीलीभीत)
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